एक और बम धमाका, एक और शोक संदेश, एक और मुआवजे की घोषणा... बस यही दस्तूर बन गया है. जनता के जिम्मे जान देने का काम और नेताओं के जिम्मे बयान देने का. और कितने जान देने के बाद इस बात की गारंटी हमारी सरकार हमें देगी कि अब ऐसी घटना को हम नहीं होने देंगे? ऐसे कितने सिपाहियों को जान देने के बाद हमारी सरकार को इस बात का इल्म होगा कि दोषी को सजा दे देनी चाहिए? नेताओं की रस्म अदायगी आखिर कब तक? जान देने का सिलसिला आखिर कब तक? पहले मुंबई और अब दिल्ली, आखिर कब तक?
देश के युवराज की संज्ञा से नवाजे गए माननीय राहुल गांधी का कुछ दिन पहले यह बयान आया था जिसमें यह कहा गया था कि हम सभी आतंकी हमलों को नहीं रोक सकते. सरकार कहती है हम महंगाई और भ्रष्टाचार नहीं रोक सकते. सरकार के मंत्री जब बयान देते हैं तो उनके बयानों में ठोस बात कम वादा ज्यादा होता है. अगर यह सरकार कुछ कर नहीं सकती तो क्यों बनी हुई है? क्या घोटाला को छोड़कर और कुछ करने में यह सरकार सक्षम नहीं है?
जनता टैक्स देती है क्या नेताओं को लूट कर अपना घर बनाने के लिए? जनता टैक्स देती है क्या कोरी बातें सुनने के लिए? जनता टैक्स देती है क्या अपने जान से हाथ धोने के लिए? जनता टैक्स देती है क्या मरने के बाद आश्रितों को मुआवजा देने के लिए?
संसद की सर्वोच्चता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता... ऐसा कहना है हमारे सांसदों का. तो क्या महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता, आतंकवाद से पीडि़त जनता इन सांसदों की पूजा करें या उस चौखट की पूजा करें और आशा भरी नजरों से अपने ही द्वारा चुने गए उन सांसदों की ओर देखें जो आतंकवादियों को फांसी की सजा से बचाने की वकालत कर रहे हैं? क्या वैसे सांसदों से न्याय और सुरक्षा की उम्मीद करें जो वोट की राजनीति के कारण ठोस निर्णय लेने में अक्षम है?
ऐसा लगने लगा है जैसे चुने हुए सांसद भारत के भाग्य विधाता बन गए हैं इसमें जनता कहीं नहीं है, इसलिए उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी किसी की नहीं है.
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