बुधवार, दिसंबर 07, 2011

पहले मंत्री को दुरूस्‍त करें सोशल मीडिया को नहीं...

भारत में करीब पौने 4 करोड़ लोग फेसबुक पर और करीब पौने 2 करोड़ लोग ट्वीटर पर सक्रिय है. देश-विदेश के तमाम मुद्दों पर यहां बातें होती हैं जिनमें से कुछ बातें निश्चित तौर पर ऐसी होती हैं जिन्‍हें मयार्दित नहीं कहा जा सकता. नेताओं की ऐसी तस्‍वीरें और ऐसे लतीफों की भरमार है जिसे किसी अखबार में या चैनल पर नहीं दिखाया जा सकता लेकिन यह भी सच है कि इसी फेसबुक और ट्वीटर ने अन्‍ना की आंदोलन को आग की तरह फैलाने में सक्रिय भूमिका निभाई और सरकार को झकझोर कर रख दिया. अब सरकार चाहती है कि सो‍शल मीडिया पर कंटेंट की निगरानी हो. ऐसे में सवाल उठता है कि क्‍या सोशल मीडिया पर निगरानी के बहाने सरकार सेंसरशिप लाना चाहती हैं?

पिछले एक महीने से यह कवायद जारी है. केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्‍बल इस मुहिम में लगे हुए हैं. इसी सिलसिले में कपिल सिब्‍बल ने गूगल, फेसबुक और माइक्रोसॉफ्ट के वरिष्‍ठ अधिकारियों से मुलाकात कर उनसे यह कहा कि वह अपने सोशल साइटो से सभी आपत्तिजनक कंटेंट (जो राहुल गांधी, सोनिया गांधी और कांग्रेस से संबंधित है)हटाए. हालांकि गूगल ने ऐसा करने से मना कर दिया लेकिन फेसबुक की ओर से यह बयान आया कि आपतिजनक कंटेट हटाने की सुविधा साइट पर दी गई है फिर भी वह इस मामले पर ध्‍यान देगा.

सवाल यह भी है कि सरकार ऐसा क्‍यों कर रही है? क्‍या राहुल गांधी और सोनिया गांधी पर आपत्तिजनक कंटेंट ही आपत्तिजनक माने जाएंगे या किसी और के मामले में भी ऐसा होगा? क्‍या सरकार की नियत इस मामले में साफ है? क्‍या अन्‍ना के आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया का उपयोग जिस तरीके से हुआ उससे सरकार डर गई है? क्‍या अन्‍ना के आंदोलन फिर से शुरू होने के मद्देनजर सरकार इस टूल को भोथरा करने की कोशिश कर रही है? क्‍या इसी बहाने सरकार मीडिया (सोशल) पर सेंसरशिप लाना चाहती है?

ढ़ेरों सवाल है और उसके ढ़ेरों जवाब हो सकते हैं. सरकार क्‍यों नहीं आईटीएक्‍ट के तहत कार्रवाई कर रही है? सरकार क्‍यों नहीं अपने पास मॉनिटरिंग की सुविधा बढ़ाना चाहती है? सरकार फेसबुक और ट्वीटर पर क्‍यों नहीं जनता की आवाजों को सुनना चाहती है? ऐसे तमाम उपाए है जिस पर सरकार को अमल करना चाहिए.

इंटरनेट यूज करने वाले भारत में तकरीबन 10 करोड़ हैं. मोबाइल यूजर की संख्‍या 85 करोड़ पहुंच चुकी है. फेसबुक और ट्वीटर बहुत ही निजी पहुंच का मीडियम है. मोबाइल पर जिस तरीके से इसका उपयोग बढ़ रहा है आने वाले समय में यह काफी हदतक जनमत बनाने में सहायक होने वाला है. ऐसा भी हो सकता है कि यही सोशल मीडिया यह तय करे कि देश में किसकी सरकार बनें. सफर भले ही लंबा है लेकिन ऐसा होना है और होकर रहेगा.

सरकार निगरानी की ओट में सोशल मीडिया पर सेंसर लगाना चाह रही है. पता नहीं सरकार यह क्‍यों सोच रही है कि जैसा वह सोच रही है सारा देश भी वैसा ही सोचें? हमें तो लगता है इस तरीके की बचकानी हरकतों से सरकार को अलग रहना चाहिए. यह उनकी कैबिनेट नहीं है. वैसे कैबिनेट की मंत्री भी उनकी कहां सुनते हैं. पहले उनको दुरूस्‍त करें सोशल मीडिया को नहीं.

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