मंगलवार, नवंबर 06, 2012

BJP के लिए सबसे ज्‍यादा खतरनाक कौन, जिन्‍ना का जिन्‍न या दाउद का IQ

सवाल खतरनाक से हो चले हैं. खतरा सवाल पूछने वालों पर भी मंडराने लगा है और इसका उदाहरण हाल ही में आयोजित एक प्रेस कांफ्रेंस में भी देखने को मिला था. खैर यहां बात हो रही है बीजेपी की और सवाल यह कि बीजेपी के लिए सबसे ज्‍यादा खतरनाक कौन है, जिन्‍ना का जीन या दाउद का आईक्‍यू?


जिन्‍ना का जिन्‍न जिस तरीके से बीजेपी के दो वरिष्‍ठ नेताओं को पार्टी के भीतर आलोचना झेलने को मजबूर कर दिया था ठीक वैसी ही स्थिति पार्टी के वर्तमान अध्‍यक्ष नितिन गडकरी के कुख्‍यात अपराधी दाऊद इब्राहिम वाले बयान पर होते जा रही है. पार्टी के भीतर कई वरिष्‍ठ नेता गडकरी से इस्‍तीफे की मांग कर रहे हैं. इन नेताओं में यशवंत सिन्‍हा, जसवंत सिंह, गुरूमूर्ति शामिल हैं.

दूसरी ओर राम जेठमलानी ने साफ कहा है कि नितिन गडकरी को तत्‍काल अपने पद से इस्‍तीफा दे देना चाहिए. जेठमलानी ने कहा कि इस्‍तीफा दे देने से काई दोषी नहीं हो जाता. उन्‍होंने कहा कि गडकरी को अपने पद से इस्‍तीफा देकर जांच का सामना करना चाहिए. उनका पद पर बने रहना पार्टी के हित में नहीं है. इससे पहले महेश जेठमलानी ने भी गडकरी के विरोध में राष्‍ट्रीय कार्यकारणी से इस्‍तीफा दे दिया था.

बीजेपी के वरिष्‍ठ नेता जसवंत सिंह भी जिन्‍ना पर लिखे अपने किताब के कारण पार्टी से निकाल दिए गए थें. उनका पार्टी से निष्‍कासन उनके पुस्तक-विमोचन के 26 घंटे के अंदर ही हो गया था. जिस समय जसवंत सिंह को पार्टी से निकाला गया था उस समय लालकृष्ण आडवाणी संसदीय बोर्ड के सबसे वरिष्ठ सदस्य थें. इससे पहले आडवाणी जिन्‍ना पर दिए गए अपने बयान को लेकर अपना अध्‍यक्ष पद गवां चुके थें.

वर्ष 2005 में पाकिस्‍तान यात्रा के दौरान बीजेपी के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष लालकृष्‍ण आडवाणी द्वारा जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताए जाने के बाद अध्यक्ष पद छोड़ने को विवश होना पड़ा था. हालांकि आडवाणी ने अपने बयान के पक्ष में पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में 11 अगस्त 1947 को दिये गये जिन्ना के प्रसिद्ध भाषण का हवाला दिया था जिसमे उन्होंने कहा था कि नये राष्ट्र पाकिस्तान में अब न कोई हिन्दू होगा और न मुसलमान. सभी पाकिस्तानी होंगे और राज्य सभी धर्मावलम्बियों से समान व्यवहार करेगा. वैसे यह अलग बात है कि जिन्ना की इस सलाह पर पाकिस्तानी हुक्मरानों ने कभी अमल नहीं किया.

अब यह देखना दिलचस्‍प होगा कि बीजेपी के वर्तमान अध्‍यक्ष नितिन गडकरी दाऊद इब्राहिम को लेकर दिए गए अपने बयान के बाद कितने समय तक पार्टी के अध्‍यक्ष पद पर बने रहते हैं.

सोमवार, जुलाई 16, 2012

...तो जान खतरनाक ढंग से सस्ती हो सकती है


ऑनर किलिंग के एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि खाप पंचायतें अवैध हैं. प्रेमी जोड़े को प्रशासन सुरक्षा दें. कोर्ट के इस टिप्‍पणी के बाद उम्‍मीद है चहकते प्रेमी युगल पर पुलिस डंडा नहीं बरसाएगी और खाप पंचायतों पर भी कोर्ट का असर दिखेगा. खाप पंचायतों की ओर से जारी होने वाले कातिलाना फरमानों पर अंकुश लग जाएगी.

जब प्रतिष्ठा विकृत ढंग से जान से प्यारी हो जाए तो जान खतरनाक ढंग से सस्ती हो सकती है. यह एक सच्‍चाई है और यह सच्‍चाई कई प्रेमी युवा शरीर पर बड़ी क्रूरता के साथ उकेड़ी गई. अगर आंकड़ों की बात कहें तो पिछले कुछ वर्षों में भारत के विशाल ग्रामीण क्षेत्र में हर वर्ष एक हजार से ज्यादा युवा अपने ही लोगों के हाथों मार डाले जाते हैं. इनमें से 900 तो अकेले अन्न उगाने वाले पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मारे जाते हैं.

इज्‍जत के लिए कत्ल ('ऑनर किलिंग') के इस चलन के लिए प्रत्यक्ष तौर पर 'जाति या धर्म की पवित्रता की रहना' का बहाना बनाया जाता है. ये सारी हत्याएं शादियों से जुड़ी होती हैं, और इनका स्त्रोत होता है, हर समुदाय के अपने-अपने अजीबोगरीब नियमों का ढांचा जो जातियों की परतों में बंटे समाज में विजातीय विवाह के ढांचे पर सवार होता है.

जिस देश में प्रेम विवाह को एक विशेष प्रकरण माना जाता है, अपने जीवनसाथी का चुनाव करने की सजा आम तौर पर उन लोगों का परिवार ही तय कर देता है, जो ऐसा करने की हिमाकत करते हैं. कुख्यात खाप पंचायत जैसे परंपरागत जातिगत संगठनों से समर्थन प्राप्‍त, जिसमें हरियाणा में एक पूर्व मुख्यमंत्री तक शामिल हैं, यह अपराध करने वाले अपने आपको सामाजिक व्यवस्था का रक्षक समझते हैं.

हालांकि अभी दो दिन पहले ही हरियाणा की खाप पंचायत ने कन्‍या भ्रूण हत्‍या रोकने की दिशा में साकारात्‍मक पहल की घोषणा की है. पहली बार एक महिला इस पंचायत में बोली. इसे आप सुखद बदलाव के रुप में देख सकते हैं लेकिन बदलते बदलते पता नहीं कितनी अजन्‍मी बच्‍ची और कितने प्रेमी युगल अपनी जान खो देंगे.

बुधवार, दिसंबर 07, 2011

पहले मंत्री को दुरूस्‍त करें सोशल मीडिया को नहीं...

भारत में करीब पौने 4 करोड़ लोग फेसबुक पर और करीब पौने 2 करोड़ लोग ट्वीटर पर सक्रिय है. देश-विदेश के तमाम मुद्दों पर यहां बातें होती हैं जिनमें से कुछ बातें निश्चित तौर पर ऐसी होती हैं जिन्‍हें मयार्दित नहीं कहा जा सकता. नेताओं की ऐसी तस्‍वीरें और ऐसे लतीफों की भरमार है जिसे किसी अखबार में या चैनल पर नहीं दिखाया जा सकता लेकिन यह भी सच है कि इसी फेसबुक और ट्वीटर ने अन्‍ना की आंदोलन को आग की तरह फैलाने में सक्रिय भूमिका निभाई और सरकार को झकझोर कर रख दिया. अब सरकार चाहती है कि सो‍शल मीडिया पर कंटेंट की निगरानी हो. ऐसे में सवाल उठता है कि क्‍या सोशल मीडिया पर निगरानी के बहाने सरकार सेंसरशिप लाना चाहती हैं?

पिछले एक महीने से यह कवायद जारी है. केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्‍बल इस मुहिम में लगे हुए हैं. इसी सिलसिले में कपिल सिब्‍बल ने गूगल, फेसबुक और माइक्रोसॉफ्ट के वरिष्‍ठ अधिकारियों से मुलाकात कर उनसे यह कहा कि वह अपने सोशल साइटो से सभी आपत्तिजनक कंटेंट (जो राहुल गांधी, सोनिया गांधी और कांग्रेस से संबंधित है)हटाए. हालांकि गूगल ने ऐसा करने से मना कर दिया लेकिन फेसबुक की ओर से यह बयान आया कि आपतिजनक कंटेट हटाने की सुविधा साइट पर दी गई है फिर भी वह इस मामले पर ध्‍यान देगा.

सवाल यह भी है कि सरकार ऐसा क्‍यों कर रही है? क्‍या राहुल गांधी और सोनिया गांधी पर आपत्तिजनक कंटेंट ही आपत्तिजनक माने जाएंगे या किसी और के मामले में भी ऐसा होगा? क्‍या सरकार की नियत इस मामले में साफ है? क्‍या अन्‍ना के आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया का उपयोग जिस तरीके से हुआ उससे सरकार डर गई है? क्‍या अन्‍ना के आंदोलन फिर से शुरू होने के मद्देनजर सरकार इस टूल को भोथरा करने की कोशिश कर रही है? क्‍या इसी बहाने सरकार मीडिया (सोशल) पर सेंसरशिप लाना चाहती है?

ढ़ेरों सवाल है और उसके ढ़ेरों जवाब हो सकते हैं. सरकार क्‍यों नहीं आईटीएक्‍ट के तहत कार्रवाई कर रही है? सरकार क्‍यों नहीं अपने पास मॉनिटरिंग की सुविधा बढ़ाना चाहती है? सरकार फेसबुक और ट्वीटर पर क्‍यों नहीं जनता की आवाजों को सुनना चाहती है? ऐसे तमाम उपाए है जिस पर सरकार को अमल करना चाहिए.

इंटरनेट यूज करने वाले भारत में तकरीबन 10 करोड़ हैं. मोबाइल यूजर की संख्‍या 85 करोड़ पहुंच चुकी है. फेसबुक और ट्वीटर बहुत ही निजी पहुंच का मीडियम है. मोबाइल पर जिस तरीके से इसका उपयोग बढ़ रहा है आने वाले समय में यह काफी हदतक जनमत बनाने में सहायक होने वाला है. ऐसा भी हो सकता है कि यही सोशल मीडिया यह तय करे कि देश में किसकी सरकार बनें. सफर भले ही लंबा है लेकिन ऐसा होना है और होकर रहेगा.

सरकार निगरानी की ओट में सोशल मीडिया पर सेंसर लगाना चाह रही है. पता नहीं सरकार यह क्‍यों सोच रही है कि जैसा वह सोच रही है सारा देश भी वैसा ही सोचें? हमें तो लगता है इस तरीके की बचकानी हरकतों से सरकार को अलग रहना चाहिए. यह उनकी कैबिनेट नहीं है. वैसे कैबिनेट की मंत्री भी उनकी कहां सुनते हैं. पहले उनको दुरूस्‍त करें सोशल मीडिया को नहीं.

शुक्रवार, नवंबर 04, 2011

'क्‍या यह मध्‍यरात्रि का नरसंहार है....'

पेट्रोल की कीमत मध्‍यरात्रि से लागू हो जाती है. अगले एक दो दिन विरोध प्रदर्शन होता है. सरकार की तरफ से बयान जारी किया जाता है. विपक्ष विरोध जताते हैं लेकिन कुछ होता नहीं है और कीमत जारी रहती है. पेट्रोलियम कं‍पनियों को नुकसान न हो यह बड़ा मसला है... जनता का क्‍या है चुनाव से पहले मना लेंगे.

ऐसा लग रहा है जैसे सरकार लोक कल्‍याणकारी संस्‍था के रूप में नहीं, एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के रूप में काम रही है जहां लागत मूल्‍य के आधार पर वस्‍तुओं की कीमत तय की जाती है. वरना महंगाई से निपटना एक सरकार के लिए इतना मुश्किल हो जाएगा, यह हास्‍यास्‍पद लग रहा है.

सरकार में अर्थशास्त्रियों की नहीं एक सोच की कमी है. शरद पवार के बयान चीनी की कीमत को बढ़ाने के लिए काफी होता था. गोदामों में सड़ते अनाज को गरीबों में मुफ्त बांटने की सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कृषि मंत्री शरद पवार ने नकार दिया था. पवार का कहना था कि मुफ्त गेहूं बांटना मुमकिन नहीं है.

जब से यूपीए सरकार में आई पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में पंख लग गए. इसका असर खाद्य पदार्थों समेत कई अन्‍य रूप में देखने को मिला. महंगाई दर आसमान छूने लगी. फल, सब्जियों के दाम आम आदमी की पहुंच से देखते देखते निकल गए. सरकार आश्‍वासन दे दे कर कई दिसम्‍बर निकाल चुकी है. बैंक का रेपो रेट घर और गाड़ी की किस्‍त पर भारी पड़ने लगा है. महंगाई की किस्‍त जब पेट्रोल बम के रूप में सामने आता है तो सरकार आश्‍वासन देती है, दिसम्‍बर में सब ठीक हो जाएगा. लेकिन वह दिसम्‍बर किस वर्ष का होगा पता नहीं चलता.

पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि पर ममता बनर्जी ने काफी कठोर संदेश देने की कोशिश की है. बीजेपी ने भी कड़ा ऐतराज जताकर अपनी विपक्षी पार्टी होने का सबूत दे दिया है. लेकिन सबसे शानदार टिप्‍पणी थी यशवंत सिन्‍हा की, 'ये मध्‍यरात्रि का नरसंहार है.' इन टिप्‍पणियों का क्‍या... हमलोग कोई लोक कल्‍याणकारी राज्‍य में तो रहते नहीं हैं... अब तो बस एक ही उपाए है अगले तीन वर्षों के लिए... हमें इस देश को चलाने वाली प्राइवेट लिमिटेड कंपनी पर भरोसा करना चाहिए.

गुरुवार, सितंबर 08, 2011

पहले मुंबई अब दिल्‍ली, आखिर कब तक?

एक और बम धमाका, एक और शोक संदेश, एक और मुआवजे की घोषणा... बस यही दस्‍तूर बन गया है. जनता के जिम्‍मे जान देने का काम और नेताओं के जिम्‍मे बयान देने का. और कितने जान देने के बाद इस बात की गारंटी हमारी सरकार हमें देगी कि अब ऐसी घटना को हम नहीं होने देंगे? ऐसे कितने सिपाहियों को जान देने के बाद हमारी सरकार को इस बात का इल्‍म होगा कि दोषी को सजा दे देनी चाहिए? नेताओं की रस्‍म अदायगी आखिर कब तक? जान देने का सिलसिला आखिर कब तक? पहले मुंबई और अब दिल्‍ली, आखिर कब तक?

देश के युवराज की संज्ञा से नवाजे गए माननीय राहुल गांधी का कुछ दिन पहले यह बयान आया था जिसमें यह कहा गया था कि हम सभी आतंकी हमलों को नहीं रोक सकते. सरकार कहती है हम महंगाई और भ्रष्‍टाचार नहीं रोक सकते. सरकार के मंत्री जब बयान देते हैं तो उनके बयानों में ठोस बात कम वादा ज्‍यादा होता है. अगर यह सरकार कुछ कर नहीं सकती तो क्‍यों बनी हुई है? क्‍या घोटाला को छोड़कर और कुछ करने में यह सरकार सक्षम नहीं है?

जनता टैक्‍स देती है क्‍या नेताओं को लूट कर अपना घर बनाने के लिए? जनता टैक्‍स देती है क्‍या कोरी बातें सुनने के लिए? जनता टैक्‍स देती है क्‍या अपने जान से हाथ धोने के लिए? जनता टैक्‍स देती है क्‍या मरने के बाद आश्रितों को मुआवजा देने के लिए?

संसद की सर्वोच्‍चता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता... ऐसा कहना है हमारे सांसदों का. तो क्‍या महंगाई और भ्रष्‍टाचार से त्रस्‍त जनता, आतंकवाद से पीडि़त जनता इन सांसदों की पूजा करें या उस चौखट की पूजा करें और आशा भरी नजरों से अपने ही द्वारा चुने गए उन सांसदों की ओर देखें जो आतंकवादियों को फांसी की सजा से बचाने की वकालत कर रहे हैं? क्‍या वैसे सांसदों से न्‍याय और सुरक्षा की उम्‍मीद करें जो वोट की राजनीति के कारण ठोस निर्णय लेने में अक्षम है?

ऐसा लगने लगा है जैसे चुने हुए सांसद भारत के भाग्‍य विधाता बन गए हैं इसमें जनता कहीं नहीं है, इसलिए उनकी सुरक्षा की जिम्‍मेदारी किसी की नहीं है.

गुरुवार, अगस्त 11, 2011

(जन)लोकपाल और आरक्षण के बीच 'समझदारों का गीत'

देश में (जन)लोकपाल पर बहस छिड़ी हुई है. बॉलीवुड में प्रकाश झा अपनी फिल्‍म आरक्षण को लेकर चर्चा में हैं तो महंगाई और भ्रष्‍टाचार के बीच जनता की स्थिति दयनीय बनी हुई है. ढ़ेर सारे मुद्दे और ढ़ेर सारे सवाल सरकार और जनता दोनों के पास है.

खैर सबकी अपनी समस्‍या और अपना दर्द है. ऐसे में आज काफी समय बाद फिर से गोरख पांडे जी की कुछ कविताओं को पढ़ने का मौका मिला. उनमें से एक कविता को यहां दे रहा हूं, आप भी पढ़ें:

समझदारों का गीत

हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।

-गोरख पांडे

रविवार, अगस्त 07, 2011

ईमान बेचते चलो, तुम भी महलों में रह लोगे...

देश के दोनों बड़े दल भ्रष्‍टाचार के सागर में गोते लगा रहे हैं. एक दल को इस बात का गुमान है कि उसे जनता ने सत्ता दिया है शासन करने के लिए. अब जनता को यह हक नहीं बनता है कि वह कुछ कहे. जो जनता कुछ कहना चाहती है उसके लिए नसीहत यह है कि वह पहले जनता के बीच से चुन कर आए. सिर्फ जनता होने से काम नहीं चलेगा. जनता को कुछ भी पूछने या जानने का हक नहीं है. जनता एक बार अपने प्रतिनिधि को निर्वाचित कर दी तो अगले पांच वर्षों तक के लिए वह अपने मुंह पर ताला जड़ ले. अब वह सिर्फ सह सकती है लेकिन न तो सवाल कर सकती है और ना ही आवाज.

दूसरी पार्टी जो विपक्ष में बैठी है उसको इस बात का गुमान है कि सवाल पूछने का हक सिर्फ मेरे पास है. लेकिन मैं अपनी मर्जी से ही कुछ करुंगा. मैं जनता के प्रति जबावदेह नहीं हूं. वैसे जनता मेरा क्‍या कर लेगी... अगर मैं भ्रष्‍टाचार के मामले में सत्ता पक्ष का साथ देता हूं तो मुझे भी लाभ मिलेगा.

मेरे विचार से कुछ ऐसा ही खेल खेला जा रहा है संसद में. कांग्रेस कर्नाटक पर चुप रहेगी तो बीजेपी दिल्‍ली के मसले पर कुछ नहीं बोलेगी. महंगाई से निपटना किसी के लिए आसान काम नहीं है तो दोनों पार्टी इसपर चुप रहेंगे और संसद में भी दोस्‍ताना बहस करेंगे... भले ही इसका फायदा कालाबाजारी करने वाले ले जाएं. मंत्री एक और बयान देंगे और अगले दो महीने तक महंगाई के नाम पर लूटने की पूरी आजादी मिल जाएगी क्‍योंकि सरकार जब खुद ही कहेगी कि महंगाई अगले दो महीनें कम नहीं होगी तो चाहे जिस किमत में सामान बेचो कोई क्‍या कर लेगा.

मीडिया भी अपनी भूमिका को शायद ही ठीक से निभा पा रही है. सांसद तो मीडिया वालों से भी यह कहने से नहीं चुक रहे हैं कि आप अपने काम से काम रखें. वे तो यहां तक नसीहत देने लगे हैं कि आपका काम है मेरे संदेश को जनता तक पहुंचाने का तो सिर्फ वही करें और सवाल पूछना बंद करें. वैसे सांसद महोदय की बातों का कुछ असर होता भी है और कुछ पत्रकार अपना सवाल पूछना भूल जाते हैं. शायद उन्‍हें इस बात का डर हो जाता होगा कि अगर संबंध खराब हो गए तो अगली बार खबर कैसे मिलेगी.

ऐसे मौके पर महान कवि गोपाल सिंह नेपाली की एक कविता याद आ रही है जो कभी अपने हॉस्‍टल के दिनों में मैंने पढ़ा था... हालांकि यह कविता 1962 के युद्ध के दौरान लिखी गई थी लेकिन इसकी प्रासंगिकता आज भी है.

मेरा धन है स्वाधीन कलम

राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्‍नहार, लाती चोरों से छीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

दलित बस्‍ती में ही सफाई करने क्‍यों पहुंच जाते हैं नेता...

बीजेपी हो या कांग्रेस या आम आदमी पार्टी सभी अपने सोच से सामंती व्‍यवस्‍था के पोषक हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वॉड...