बुधवार, अगस्त 11, 2010

युवा पूछेंगे कत्‍ल होते सपनों के प्रदेश से...

सपने
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग को सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुई
हथेली के पसीने को सपने नहीं आते
शेल्‍फों में पड़े
इतिहास-ग्रन्‍थों को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाजिमी है
झेलनेवाले दिलों का होना
सपनों के लिए
नींद की नजर होना लाजिमी है
सपने इसलिए
हर किसी को नहीं आते
-पाश

पाश की यह कविता उन लोगों के लिए पढ़ना बेहतर हो सकता है जो कश्‍मीर में बारूद की फसल बो रहे हैं और युवाओं को गुमराह कर रहे हैं. जिन आंखों में भविष्‍य के सपने होने चाहिए उन आंखों में खौफ का बसेरा बना हुआ है. राज्‍य के मुखिया अपने आप को नकारा साबित करने में लगे हुए हैं और विपक्षी दल पड़ोसी मुल्‍क की ओर उम्‍मीद की किरण तलाश रहे हैं. देश के मुखिया दो शब्‍द सद्भावना के बोल कर यह उम्‍मीद करने लगे हैं कि अब मामला सुलझ जाएगा.

सरकार की भूमिका पर सवाल उठाने वाले तो तमाम हैं लेकिन कोई उनसे क्‍यों नहीं पूछ रहा है जो गैर राजनीतिक बुद्धिजीवी हैं? ये लोग क्‍या कर रहे हैं? अगर इस उम्‍मीद में कश्‍मीर के बुद्धिजीवी अपने आप को राहत महसूस कर रहे होंगे कि हमारी तो कोई जवाबदेही नहीं है तो वे भूल जाएं इस बात को. आने वाले समय में प्रदेश का आम आदमी, युवा उन गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों की दिनचर्या, उनके पहनावे या उन नपुंसक मुठभेड़ के बारे में या फिर उनकी विद्वता के विषय में जानना नहीं चाहेगा और ना ही सफेद झूठ के साए में जन्‍मे उनके उलजूलूल जवाबों को सुनना पसंद करेगा.

कल घाटी का युवा उनसे भी सवाल पूछेगा. वह पूछेगा उनसे कि तब उन्‍होंने क्‍या किया जब मीठी आग की तरह उनका प्रदेश दम तोड़ रहा था? प्रदेश के युवा जिनका उन गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों की बातों में या विचारों में कोई स्‍थान नहीं है, वे पूछेंगे तब आपने क्‍या किया जब हमारे सपनों का कत्‍ल किया जा रहा था? सरकार की तरह प्रदेश के वे तमाम बुद्धिजीवी भी अपराधी हैं जो इस समय घाटी में युवओं के सपनों को जलते हुए देखकर भी खामोश बैठें हैं. मसला कुछ भी हो शांति और अमन से निपटाया जा सकता है और इसकी पहल हरेक स्‍तर पर हरहाल में होनी चाहिए.

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