बुधवार, अप्रैल 13, 2011

जाति की राजनीति आखिर कब तक?

अभी एक नया विवाद खड़ा हो गया है शहीदों (भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव) की जाति को लेकर. कांग्रेस के मुखपत्र 'कांग्रेस संदेश' के मार्च अंक में शहीदी दिवस के नाम से छपे लेख में शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की जाति का जिक्र करते हुए बताया गया है कि लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए ब्रिटिश अधिकारी सांडर्स की हत्या करने वालों में ये शामिल थे. टेलीविजन पर दिन से लेकर रात तक इसी पर चर्चा होते रही. पता नहीं लोग कहीं पहुंच पाए कि नहीं....अगर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव होते, तो क्‍या इस पर चर्चा भी करते? मेरा तो मन कहता है नहीं, क्‍योंकि उनके विचार इन विवादों से परे थे, उनके लिए जाति और मजहब से बड़ा देश था....

कई समाजशास्त्रियों का मत है कि अंग्रेजों की गुलामी ने भारत को जितना नुकसान नहीं पहुंचाया, उससे कहीं अधिक जाति-प्रथा ने देश को कमजोर किया. मुट्ठी भर विदेशी आक्रमणकारियों ने अंग्रेजों से पहले भी भारत पर हमले किए और इस देश को लूटकर चले गए. अगर उस दौरान समाज एक होता और एक-एक पत्‍थर भी इन आक्रमणकारियों पर फेंक देता, तो शायद आक्रमणकारी उसी में दब जाते, लेकिन ऐसा नहीं हो सका.

बाद में अंग्रेजों ने इस व्‍यवस्‍था का जबरदस्‍त फायदा उठाया. शिक्षा एवं प्रशासनिक व्‍यवस्‍था में थोड़ा फेर-बदल कर गुलामी की मानसिकता को और अधिक मजबूत करने का प्रयास किया. जमीनदारी प्रथा पूरे देश में जड़ फैला चुकी थी. गुलाम बनाए जाने का धंधा बदस्‍तूर जारी था. ऐसे में लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति ने मानसिक रूप से गुलाम बनाए जाने की तकनीक को मजबूत करना शुरू कर दिया. हालांकि इसके कारण देश के लोगों को काफी फायदा हुआ और अंग्रेजी की पढ़ाई उनके लिए एक हथियार बना. जिन लोगों पर इसका असर एक भाषा की तरह हुआ, वो लोग सफल रहे, लेकिन जिन लोगों पर इसका असर शासक वर्ग की तरह हुआ, वे मैकाले बन बैठे. उनके लिए अंग्रेजी सर्वश्रेष्‍ठ थी और अन्‍य भाषा गुलाम. अंग्रेजी साहित्‍य सर्वोच्‍च थी और अन्‍य साहित्‍य का स्‍थान उसके बाद.

जाति का नाम जन्‍म के साथ ही जुड़ जाता है. इसका निर्धारण जब कभी भी हुआ था, उसका पैमाना निश्चित रूप से आज का नहीं था. जाति को लेकर कुछ लोगों ने अपनी सीमा तय कर ली और यह भी तय कर लिया कि इसके दायरे में किसी और जाति के लोगों को नहीं आने देना है. परिणाम हुआ जो ब्राह्मण (जन्‍म से) थे, वो कभी क्षत्रिय नहीं बने और जो वैश्‍य थे, कभी ब्राह्मण नहीं बने. समाज को सही तरीके से संचालन करने का स्‍वप्‍न देखकर जिसने जाति व्‍यवस्‍था बनाई, उन्‍हें शायद इस प्रकार की बेईमानी या नियम पालन नहीं करने पर सजा का भय नहीं था. जाति के अंदर तो तमाम रक्षाकवच बन गए कि कैसे इसमें बने रहना है, लेकिन इससे ऊपर उठकर सोचने और पूरी व्‍यवस्‍था को संचालित करने की प्रणाली शायद विकसित नहीं हो पाई. इसका काफी दूरगामी परिणाम देखने को मिला.

जिस युग में शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु देश के लिए काम कर रहे थे, उसी युग में आर्य समाज जैसी संस्‍थाएं भी काम कर रही थीं. राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ का उदय हो रहा था और देश में क्रांति की एक नई लहर चल पड़ी थी. मेरे विचार से शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु एक ही दिन में अंग्रेजों के खिलाफ नहीं हुए होंगे. उन्‍होंने बचपन से अंग्रेजों के राज करने के तरीकों, उनकी मानसिक सोच, समाज में घटित होने वाली घटनाओं को करीब से देखा, तब जाकर कही वो भगत सिंह, सुखदेव या राजगुरु के रूप में लोगों के सामने आए. कर्म से उन्‍होंने साबित किया कि वो एक देशभक्‍त हैं, न कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य या शूद्र.

जाति को लेकर राजनीति कई स्‍तरों पर हो रही है और पहले भी होती रही है. महाभारत काल में कर्ण को सिर्फ इस आधार पर गुरु द्रोणाचार्य ने शस्‍त्र शिक्षा देने से वंचित कर दिया था कि वो क्षत्रिय नहीं हैं. दुर्योधन ने भले ही अपने फायदे के लिए ही सही, लेकिन कर्ण को वह सम्‍मान दिया, जो जाति से ऊपर उठकर था. एकलव्‍य ने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा लगाकर शस्‍त्र चलाना सीखा और इसे दुर्भाग्‍य ही कहा जाएगा कि इसके लिए उसे अपना अंगूठा गंवाना पड़ा. हालांकि देखने का नजरिया यह कि एकलव्‍य ने गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा दे दिया था, यह किसी ने नहीं कहा कि यह गुरु की ज्‍यादती थी. एकलव्‍य की कहानी को वर्षों तक महिमामंडित किया जाता रहा और आज भी बदस्‍तूर जारी है.

हो सकता है यह सही रहा हो, लेकिन क्‍या एक गुरु का हृदय ऐसा क्रूर(?) होना चाहिए? क्‍या एकलव्‍य अगर क्षत्रिय होता, तो उसके साथ भी ऐसा ही व्‍यवहार किया जाता? या यह सब जाति के मजबूत होने (या जाति को मजबूत करने) के लिए किया जा रहा था? इसका जवाब अब भी उतना ही प्रासंगिक हो सकता है, जितना उस समय होता.

जाति और मजहब का इस्‍तेमाल राजनीतिक पार्टियां अपने फायदे के लिए करती रही हैं, भले ही इससे देश का नुकसान ही क्‍यों न हो. शहीदों (भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव) की जाति को लेकर जो विवाद पैदा करने की कोशिश हुई है, उसके पीछे पक्ष और विपक्ष की मानसिकता सही नजर नहीं आ रही है. अब देश वैसा नहीं रहा कि ये लोग धर्म और जाति के नाम पर हिंसा फैला देंगे और देश को मु‍सीबत में डाल देंगे. इसके लिए इन्‍हें कोई और तरीका ढ़ूंढना होगा. फिलहाल हमारे भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव आमरण अनशन तोड़ चुके हैं और एक नई लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं.

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