सोमवार, अप्रैल 18, 2011

कहीं राजनीति में उलझकर न रह जाए अन्‍ना की मुहिम...

अनशन की समाप्ति के ठीक बाद अन्‍ना ने अपना प्रेस कांफ्रेंस रखा. पहला विवाद वहीं से शुरू हो गया. ग्रामीण विकास की बात हुई और मीडिया सहित उनके कई समर्थकों को यह लगा कि अन्‍ना ने मोदी की तारीफ कर दी है. बाद में अन्‍ना इसपर सफाई देते फिरते रहे.

दूसरा विवाद उठा समिति में शांति भूषण एवं प्रशांत भूषण को शामिल किए जाने को लेकर. बाबा रामदेव की नाराजगी सबसे ज्‍यादा रही. इसपर भी अन्‍ना को सफाई देनी पड़ी. हालांकि बात संभली लेकिन विवाद मीडिया में आ ही गया.

जनलोकपाल बिल को लेकर कपिल सिब्‍बल के बयान पर भी सफाई देने का काम चलते रहा जिसमें उन्‍होंने कहा था कि इस बिल से कुछ नहीं होने वाला है (शिक्षा, चिकित्‍सा और अन्‍य समस्‍याओं के लिए लोग नेता को ही फोन करते हैं, वह समस्‍या तो इस बिल से हल नहीं होगा...). बाद में अरविन्‍द केजरीवाल और अन्‍ना हजारे को यहां तक कहना पड़ा कि अगर उनको इस बिल पर भरोसा नहीं है तो उन्‍हें समिति से इस्‍तीफा दे देना चाहिए. इसे आप तीसरा विवाद कह सकते हैं.

चौथा विवाद रहा शांति भूषण और अमर सिंह के बीच हुए तथाकथित बातचीत का टेप जारी होना. यह मसला 2006 का है जैसा कि अमर सिंह बता रहे हैं. अमर सिंह का कहना है कि उन्‍हें जबरदस्‍ती इस मामले में घसीटा जा रहा है जबकि शांति भूषण की ओर से यह कहा जा रहा है कि यह टेप ही फर्जी है. अन्‍ना हजारे को इस पर भी सफाई देना पड़ रहा है.

विवादों के बीच अन्‍ना के नरम रुख की बात भी हो रही है और मूल जन लोकपाल बिल में आए कई बदलाव की भी. समिति की पहली बैठक होने तक ये सारे विवाद और बदलाव देखने को मिल रहे हैं. अभी तो कई और बैठकें होनी है. कहीं ऐसा न हो कि लोकपाल बिल बनाए जाने तक जन लोकपाल बिल की सारी बातें बदल जाए और जो सरकार चाह रही है वही बिल लोगों के सामने आए... क्‍योंकि राजनीति और समाज सेवा का कोई सीधा संबंध हमें अभी तक नहीं दिखा. जिस काम से हमारे नेताओं का कोई फायदा न हो, वह उस काम को कभी नहीं करेंगे. आखिर नेता और समाजसेवक में यही तो अंतर होता है.

बुधवार, अप्रैल 13, 2011

जाति की राजनीति आखिर कब तक?

अभी एक नया विवाद खड़ा हो गया है शहीदों (भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव) की जाति को लेकर. कांग्रेस के मुखपत्र 'कांग्रेस संदेश' के मार्च अंक में शहीदी दिवस के नाम से छपे लेख में शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की जाति का जिक्र करते हुए बताया गया है कि लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए ब्रिटिश अधिकारी सांडर्स की हत्या करने वालों में ये शामिल थे. टेलीविजन पर दिन से लेकर रात तक इसी पर चर्चा होते रही. पता नहीं लोग कहीं पहुंच पाए कि नहीं....अगर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव होते, तो क्‍या इस पर चर्चा भी करते? मेरा तो मन कहता है नहीं, क्‍योंकि उनके विचार इन विवादों से परे थे, उनके लिए जाति और मजहब से बड़ा देश था....

कई समाजशास्त्रियों का मत है कि अंग्रेजों की गुलामी ने भारत को जितना नुकसान नहीं पहुंचाया, उससे कहीं अधिक जाति-प्रथा ने देश को कमजोर किया. मुट्ठी भर विदेशी आक्रमणकारियों ने अंग्रेजों से पहले भी भारत पर हमले किए और इस देश को लूटकर चले गए. अगर उस दौरान समाज एक होता और एक-एक पत्‍थर भी इन आक्रमणकारियों पर फेंक देता, तो शायद आक्रमणकारी उसी में दब जाते, लेकिन ऐसा नहीं हो सका.

बाद में अंग्रेजों ने इस व्‍यवस्‍था का जबरदस्‍त फायदा उठाया. शिक्षा एवं प्रशासनिक व्‍यवस्‍था में थोड़ा फेर-बदल कर गुलामी की मानसिकता को और अधिक मजबूत करने का प्रयास किया. जमीनदारी प्रथा पूरे देश में जड़ फैला चुकी थी. गुलाम बनाए जाने का धंधा बदस्‍तूर जारी था. ऐसे में लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति ने मानसिक रूप से गुलाम बनाए जाने की तकनीक को मजबूत करना शुरू कर दिया. हालांकि इसके कारण देश के लोगों को काफी फायदा हुआ और अंग्रेजी की पढ़ाई उनके लिए एक हथियार बना. जिन लोगों पर इसका असर एक भाषा की तरह हुआ, वो लोग सफल रहे, लेकिन जिन लोगों पर इसका असर शासक वर्ग की तरह हुआ, वे मैकाले बन बैठे. उनके लिए अंग्रेजी सर्वश्रेष्‍ठ थी और अन्‍य भाषा गुलाम. अंग्रेजी साहित्‍य सर्वोच्‍च थी और अन्‍य साहित्‍य का स्‍थान उसके बाद.

जाति का नाम जन्‍म के साथ ही जुड़ जाता है. इसका निर्धारण जब कभी भी हुआ था, उसका पैमाना निश्चित रूप से आज का नहीं था. जाति को लेकर कुछ लोगों ने अपनी सीमा तय कर ली और यह भी तय कर लिया कि इसके दायरे में किसी और जाति के लोगों को नहीं आने देना है. परिणाम हुआ जो ब्राह्मण (जन्‍म से) थे, वो कभी क्षत्रिय नहीं बने और जो वैश्‍य थे, कभी ब्राह्मण नहीं बने. समाज को सही तरीके से संचालन करने का स्‍वप्‍न देखकर जिसने जाति व्‍यवस्‍था बनाई, उन्‍हें शायद इस प्रकार की बेईमानी या नियम पालन नहीं करने पर सजा का भय नहीं था. जाति के अंदर तो तमाम रक्षाकवच बन गए कि कैसे इसमें बने रहना है, लेकिन इससे ऊपर उठकर सोचने और पूरी व्‍यवस्‍था को संचालित करने की प्रणाली शायद विकसित नहीं हो पाई. इसका काफी दूरगामी परिणाम देखने को मिला.

जिस युग में शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु देश के लिए काम कर रहे थे, उसी युग में आर्य समाज जैसी संस्‍थाएं भी काम कर रही थीं. राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ का उदय हो रहा था और देश में क्रांति की एक नई लहर चल पड़ी थी. मेरे विचार से शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु एक ही दिन में अंग्रेजों के खिलाफ नहीं हुए होंगे. उन्‍होंने बचपन से अंग्रेजों के राज करने के तरीकों, उनकी मानसिक सोच, समाज में घटित होने वाली घटनाओं को करीब से देखा, तब जाकर कही वो भगत सिंह, सुखदेव या राजगुरु के रूप में लोगों के सामने आए. कर्म से उन्‍होंने साबित किया कि वो एक देशभक्‍त हैं, न कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य या शूद्र.

जाति को लेकर राजनीति कई स्‍तरों पर हो रही है और पहले भी होती रही है. महाभारत काल में कर्ण को सिर्फ इस आधार पर गुरु द्रोणाचार्य ने शस्‍त्र शिक्षा देने से वंचित कर दिया था कि वो क्षत्रिय नहीं हैं. दुर्योधन ने भले ही अपने फायदे के लिए ही सही, लेकिन कर्ण को वह सम्‍मान दिया, जो जाति से ऊपर उठकर था. एकलव्‍य ने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा लगाकर शस्‍त्र चलाना सीखा और इसे दुर्भाग्‍य ही कहा जाएगा कि इसके लिए उसे अपना अंगूठा गंवाना पड़ा. हालांकि देखने का नजरिया यह कि एकलव्‍य ने गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा दे दिया था, यह किसी ने नहीं कहा कि यह गुरु की ज्‍यादती थी. एकलव्‍य की कहानी को वर्षों तक महिमामंडित किया जाता रहा और आज भी बदस्‍तूर जारी है.

हो सकता है यह सही रहा हो, लेकिन क्‍या एक गुरु का हृदय ऐसा क्रूर(?) होना चाहिए? क्‍या एकलव्‍य अगर क्षत्रिय होता, तो उसके साथ भी ऐसा ही व्‍यवहार किया जाता? या यह सब जाति के मजबूत होने (या जाति को मजबूत करने) के लिए किया जा रहा था? इसका जवाब अब भी उतना ही प्रासंगिक हो सकता है, जितना उस समय होता.

जाति और मजहब का इस्‍तेमाल राजनीतिक पार्टियां अपने फायदे के लिए करती रही हैं, भले ही इससे देश का नुकसान ही क्‍यों न हो. शहीदों (भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव) की जाति को लेकर जो विवाद पैदा करने की कोशिश हुई है, उसके पीछे पक्ष और विपक्ष की मानसिकता सही नजर नहीं आ रही है. अब देश वैसा नहीं रहा कि ये लोग धर्म और जाति के नाम पर हिंसा फैला देंगे और देश को मु‍सीबत में डाल देंगे. इसके लिए इन्‍हें कोई और तरीका ढ़ूंढना होगा. फिलहाल हमारे भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव आमरण अनशन तोड़ चुके हैं और एक नई लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं.

क्‍या अन्‍ना की बात पर राजनीति जरुरी है?

अन्‍ना हजारे ने गुजरात और बिहार में हो रहे ग्रामीण क्षेत्रों में विकास का उल्‍लेख अपने प्रेस कांफ्रेंस में किया था. अन्‍ना यह भूल गए कि वह कहां बोल रहे हैं और लोग उसका क्‍या मतलब निकालेंगे. मेधा पाटेकर और मल्लिका साराभाई जब इसका मतलब मोदी की तारीफ से लगा सकती है तो दूसरे अन्‍य लोगों की बात ही क्‍या. लगता है लोगों ने यह मान लिया है कि एक गलती (?) की सजा तमाम अच्‍छे कामों से ज्‍यादा होनी चाहिए. जब तक मोदी उस सीमा को तय नहीं कर लेते तब तक वो प्रशंसा के पात्र नहीं होंगे!

गुरुवार, अप्रैल 07, 2011

देश की आवाज बने अन्‍ना हजारे

देश की आवाज अन्‍ना हजारे की आवाज बन गई है. अन्ना हजारे जिस जन लोकपाल बिल के लिए भूख हड़ताल पर हैं, उसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस संतोष हेगड़े, वक़ील प्रशांत भूषण और आरटीआई कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल ने मिलकर तैयार किया है.

क्‍या है जन लोकपाल बिल में:
1. इस बिल में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए केंद्र में लोकपाल और राज्य में लोकायुक्तों की नियुक्ति का प्रस्ताव है.
2. इनके कामकाज में सरकार और अफसरों का कोई दखल नहीं होगा.
3. भ्रष्टाचार की कोई शिकायत मिलने पर लोकपाल और लोकायुक्तों को साल भर में जांच पूरी करनी होगी.
4. अगले एक साल में आरोपियों के ख़िलाफ़ केस चलाकर क़ानूनी प्रक्रिया पूरी की जाएगी और दोषियों को सज़ा मिलेगी.
5. यही नहीं भ्रष्टाचार का दोषी पाए जाने वालों से नुकसान की भरपाई भी कराई जाएगी.
6. अगर कोई भी अफसर वक्त पर काम नहीं करता जैसे राशन कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस नहीं बनाता तो उस पर जुर्माना लगाया जाएगा.
7. 11 सदस्यों की एक कमेटी लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति करेगी.
8. लोकपाल और लोकायुक्तों के खिलाफ आरोप लगने पर भी फौरन जांच होगी.
9. जन लोकपाल विधेयक में सीवीसी और सीबीआई के एंटी करप्शन डिपार्टमेंट को आपस में मिलाने का प्रस्ताव है.
10. साथ ही जन लोकपाल विधेयक में उन लोगों को सुरक्षा देने का प्रस्ताव है जो भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएंगे.

मंगलवार, अगस्त 31, 2010

क्‍या कॉमनवेल्‍थ पाकिस्‍तान में हो रहा है?

कॉमनवेल्‍थ गेम भारत में नहीं हो रहा है. मुझे तो कम से कम यही लग रहा है. चाहे सत्ता पक्ष के मणिशंकर अय्यर हों या विपक्ष में बैठे वामदल हों, सब कॉमनवेल्‍थ को लेकर कुछ न कुछ ऐसा बयान दे रहे हैं. इन नेताओं के बयान से ऐसा लग रहा है जैसे यह खेल पाकिस्‍तान में कराए जा रहे हैं जिसे हर हाल में असफल हो जाना चाहिए.

हालिया बयान गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी का आया है. मोदी का कहना है कि अगर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी खुद से पोंछा लगाने लगे तो भी कॉमनवेल्‍थ गेम का कुछ नहीं हो सकता है. मोदी का कहना है कि कॉमनवेल्‍थ मामले में काम इतना बिगड़ चुका है कि कोई कुछ नहीं कर सकता है.

क्‍या देश की सभी पार्टियां कॉमनवेल्‍थ मुद्दे पर एक होकर इसे सफल बनाने के लिए काम नहीं कर सकती? क्‍या यह गेम पाकिस्‍तान में हो रहा है? बेहतर तो यह होता कि सभी नेता, पक्ष और विपक्ष मिलकर इस गेम को सफल बनाते और फिर इस दौरान हुई खामियों के लिए जिम्‍मेदारी तय करते. आखिर यह गेम अब देश की प्रतिष्‍ठा का विषय बन चुका है.

बुधवार, अगस्त 11, 2010

युवा पूछेंगे कत्‍ल होते सपनों के प्रदेश से...

सपने
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग को सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुई
हथेली के पसीने को सपने नहीं आते
शेल्‍फों में पड़े
इतिहास-ग्रन्‍थों को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाजिमी है
झेलनेवाले दिलों का होना
सपनों के लिए
नींद की नजर होना लाजिमी है
सपने इसलिए
हर किसी को नहीं आते
-पाश

पाश की यह कविता उन लोगों के लिए पढ़ना बेहतर हो सकता है जो कश्‍मीर में बारूद की फसल बो रहे हैं और युवाओं को गुमराह कर रहे हैं. जिन आंखों में भविष्‍य के सपने होने चाहिए उन आंखों में खौफ का बसेरा बना हुआ है. राज्‍य के मुखिया अपने आप को नकारा साबित करने में लगे हुए हैं और विपक्षी दल पड़ोसी मुल्‍क की ओर उम्‍मीद की किरण तलाश रहे हैं. देश के मुखिया दो शब्‍द सद्भावना के बोल कर यह उम्‍मीद करने लगे हैं कि अब मामला सुलझ जाएगा.

सरकार की भूमिका पर सवाल उठाने वाले तो तमाम हैं लेकिन कोई उनसे क्‍यों नहीं पूछ रहा है जो गैर राजनीतिक बुद्धिजीवी हैं? ये लोग क्‍या कर रहे हैं? अगर इस उम्‍मीद में कश्‍मीर के बुद्धिजीवी अपने आप को राहत महसूस कर रहे होंगे कि हमारी तो कोई जवाबदेही नहीं है तो वे भूल जाएं इस बात को. आने वाले समय में प्रदेश का आम आदमी, युवा उन गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों की दिनचर्या, उनके पहनावे या उन नपुंसक मुठभेड़ के बारे में या फिर उनकी विद्वता के विषय में जानना नहीं चाहेगा और ना ही सफेद झूठ के साए में जन्‍मे उनके उलजूलूल जवाबों को सुनना पसंद करेगा.

कल घाटी का युवा उनसे भी सवाल पूछेगा. वह पूछेगा उनसे कि तब उन्‍होंने क्‍या किया जब मीठी आग की तरह उनका प्रदेश दम तोड़ रहा था? प्रदेश के युवा जिनका उन गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों की बातों में या विचारों में कोई स्‍थान नहीं है, वे पूछेंगे तब आपने क्‍या किया जब हमारे सपनों का कत्‍ल किया जा रहा था? सरकार की तरह प्रदेश के वे तमाम बुद्धिजीवी भी अपराधी हैं जो इस समय घाटी में युवओं के सपनों को जलते हुए देखकर भी खामोश बैठें हैं. मसला कुछ भी हो शांति और अमन से निपटाया जा सकता है और इसकी पहल हरेक स्‍तर पर हरहाल में होनी चाहिए.

गुरुवार, फ़रवरी 11, 2010

सबकी है मुंबई

मुंबई किसकी यह सवाल पूछना बेमानी है। इसका यह मतलब निकाला जा सकता है कि इस पर शक है. लेकिन हमें इसपर कोई शक नहीं होना चाहिए कि मुंबई सबकी है, देश की है, देशवासियों की है. ठाकरे परिवार या किसी राजनीतिक पार्टी की जागीर नहीं है.

दलित बस्‍ती में ही सफाई करने क्‍यों पहुंच जाते हैं नेता...

बीजेपी हो या कांग्रेस या आम आदमी पार्टी सभी अपने सोच से सामंती व्‍यवस्‍था के पोषक हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वॉड...